phynomagk logo

भारतीय संगीत (Sangit) और वाद्ययंत्र (wadya yantra) डिटेल्ड नोट्स Part :- 2 : कर्नाटक संगीत (Karnataka Sangit)

Last Update

यह शास्त्रीय संगीत की दक्षिण भारतीय शैली है।

यह संगीत अधिकांशतः भक्ति संगीत रूप में होता है और इसके अंतर्गत अधिकतर रचनाएँ हिन्दू देवी-देवताओं को संबोधित होती है।

यह संगीत, गीत की गुणवत्ता पर अधिक बल देता है।

इसकी रचनाएँ तमिल, तेलगू, कन्नड़ एवं संस्कृत में होती है। हिन्दुस्तानी संगीत की तरह कर्नाटक संगीत भी दो तत्वों पर आधारित है —- राग और ताल

कर्नाटक संगीत की अधिकतर रचनाओं में मुख्यतः तीन भाग होते हैं —- पल्लवी, अनुपल्लवी और चरण

  • पल्लवी :- रचना की पहली या दूसरी विषयगत पंक्ति पल्लवी के रूप में संदर्भित होती है। इस भाग को अक्सर प्रत्येक छंद में दोहराया जाता है। यह कर्नाटक संगीत का सबसे अच्छा भाग माना जाता है। इसे रागम थनम पल्लवी के नाम से जाना जाता है।
  • अनु पल्लवी :- पहली पंक्ति या पल्लवी के बाद आने वाली दो पंक्तियाँ अनु पल्लवी कहलाती हैं। इन्हें प्रारंभ में और कभी-कभी गीत के अंत में गाया जाता है लेकिन प्रत्येक छंद या चरण के बाद इसे दोहराना आवश्यक नहीं है।
  • चरण :- यह अंतिम और सबसे लबां छंद है, जो गीत का समापन करता है

कर्नाटक संगीत सामान्यतः मृदंग के साथ गाया जाता है। मृदंग के साथ मुक्त लय मधुर तात्कालिकता का खंड तानम कहलाता है लेकिन वे खंड जिनमे मृदंग की आवश्यकता नहीं होती उन्हें रागम कहा जाता है।

दक्षिण भारत के राजाओं ने भी कर्नाटक संगीत को अपने दरबार में जगह दी और मान-सम्मान दिया। इनमें त्रावणकोर के राजा स्वाति तिरूनल राम वर्मा (1813-1846) का नाम बहुत प्रसिद्ध है ये कर्नाटक संगीत के त्रिमूर्ति के समकालीन थे। उन्होंने कर्नाटक शैली में कई कृतियों, वर्णम, पदमों और जवालियों की रचना की।

त्यागराज, मुथुस्वामी दीक्षितार एवं श्याम शास्त्री को कर्नाटक संगीत के त्रिमुति कहा जाता है। ये तीनों थिरूवरूर में पैदा हुए।

  1. त्यागराज (1767-1847) :- इनकी अधिकांश रचनाएँ तेलगू में है और कुछ रचनाएँ संस्कृत में भी हैं। इनकी रचनाएँ भगवान राम की प्रशंसा में है। इनकी एक प्रसिद्ध रचना पंचरत्न कृति है, जो इनकी प्रसिद्धि का कारण बना। इन्होने कई नए राग बनाए।
  2. मुथुस्वामी दीक्षितार (1775-1835) :- इनकी अधिकांश रचनाएँ संस्कृत में है और हिन्दू देवताओं और मंदिरों से संबंधित है। इनकी रचनाएँ भगवान सुब्रह्मणयम को समर्पित है। इन्होंने गमक (अलंकरण) के उपयोग पर जोड़ दिया। इनका सांकेतिक नाम गुरु-गुहा था, जो उनकी मुद्रा भी है। वे वीणावादक भी थे
  3. श्याम शास्त्री (1762-1827) :- इन्होंने कई दुर्लभ रागों, जैसे-मंजी और चिन्तमणी में रचना की। इन्होने तेलूगू में देवी मीनाक्षी की प्रशंसा में नवरत्नमलिका की रचना की जिसे लोगों ने काफी पसंद किया। इनका सांकेतिक नाम श्याम कृष्णा था।
  1. अलंकरम :- इसमें भावों को व्यक्त करने के लिए विभिन्न प्रकार के अलंकरणों का उपयोग किया जाता है। कर्नाटक संगीत में अलंकरणों (गामक, मींड और कम्पितम) का उपयोग करने का अर्थ है, श्वरों और वाक्यांशों को सजाना, उन्हें अधिक आकर्षक और भावनात्मक बनाना। अलंकरण संगीत को एक विशेष रंगत और गहराई प्रदान करते हैं।
  2. लक्षणगीतम :- यह एक सरल और शुरुआती संगीत रचना है, जिसका उपयोग रागों को पेश करने और स्वरों का अभ्यास करने के लिए किया जाता है।
  3. स्वराजति :- इसमें केवल स्वरों को ताल एवं राग में बाँटा जाता है। स्वराजति के विषय आमतौर पर भक्ति , प्रेम या वीरता होते हैं।
  4. आलापम :- इस शैली में गायक या वादक राग के स्वरों और उनकी विशेषताओं को विस्तार से पेस करते हैं। आलापम का मुख्य उदेश्य श्रोताओं को राग की सुंदरता और मूड से परिचित कराना है।
  5. कृति :- कृति एक संरचित संगीत रचना है , जिसमें आमतौर पर पल्लवी , अनु पल्लवी , वर्णम और रागमालिका जैसे भाग होते हैं। कृति ताल पर आधारित होती है और इसमें जटिल लयबद्ध चक्र होते हैं।
  6. तिल्लाना या थिल्लाना :- यह एक लयबद्ध और आकर्षक रचना है , जो आमतौर पर कर्नाटक संगीत के प्रदर्शन के अंत में बजाई जाती है। यह गायक की तकनीकी प्रतिभा दिखाने का एक शानदार तरीका है।
    • कर्नाटक शैली में तिल्लाना हिन्दुस्तानी संगीत शैली के तराना के समान है। इसमें भक्ति गीत गाए जाते हैं।
  7. पदम् :- यह एक भाव प्रधान गीत है , जो नृत्य और अभिनय के लिए भी उपयुक्त है। यह हिंदुस्तानी संगीत की ठुमरी , टप्पा , गीत आदि से मिलती-जुलती है।

कर्नाटक संगीत में सात में से दो स्वरों का उच्चारण हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति के स्वरों से कुछ अलग होता है। जैसे रे की जगह ‘रि’ और ध की जगह ‘द‘।

हिन्दुस्तानी संगीत शैली में जिस तरह से दस थाट बनाए गए हैं, उसी तरह कर्नाटक शैली में 72 मेल बनाए गए हैं।

ये कर्नाटक संगीत के पहले जाने-माने संगीतकार हैं।

इनकी रचनाएँ मुख्यतः तेलुगु में है। इन्हें तेलुगु गीत-लेखन का जनक कहा जाता है।

उन्होंने भगवान वेंकटेश्वर (विष्णु के रूप) की स्तुति में संकीर्तन की रचना की।

पुरंदर दास (1484-1564) को कर्नाटक संगीत के जनक या पितामह के रूप में जाना जाता है।

ये कृष्ण भक्त थे।

इन्हें कर्नाटक संगीत का नारद या नारद का अवतार (नारदावतारी) भी कहा जाता है।

इनकी प्रसिद्ध रचना में दास साहित्य शामिल है।

इनकी रचनाएँ मुख्य रूप से भगवान कृष्ण को समर्पित थी।

इनके पद्म आज भी भरतनाट्यम एवं कुचि पुड़ी प्रदर्शन के दौरान गाए जाते हैं।

इन्होंने चतुर्दण्डी प्रकाशिका नामक ग्रंथ लिखा, जिसमे उन्होंने रागों को वर्गीकृत करने की मेलाकर्ता प्रणाली शुरू की।

वेंकट मखीन ने कर्नाटक शैली के सभी रागों को 72 मेलों में वर्गीकृत करने का काम किया।

वे थिरूवरूर के व्यागेश देवता के भक्त थे और उन्होंने उनके सम्मान में 24 अष्टपदियों की रचना की।

क्र. सं. अंतर के बिन्दु हिन्दुस्तानी संगीत कर्नाटक संगीत
1.प्रभाव अरबी, फारसी एवं अफगान स्वदेशी
2.प्रमुख वाद्ययंत्रों का उपयोग तबला, सारंगी, सितार और संतूरवीणा, मृदंग और मैंडोलिन
3.भारत के भागों से संबंध उत्तर भारतदक्षिण भारत
4.स्वतंत्रता सुधारने के लिए कलाकारों के पास अवसर, इसीलिए विभिन्न्ता के लिए अवसर सुधारने के लिए कोई स्वतंत्रता नहीं
5.दोनों के बीच समानता बाँसुरी तथा वायलिनबाँसुरी तथा वायलिन
6.वाद्ययंत्रों की आवश्यकता कंठ संगीत की भाँति वाद्य यंत्रों की भी आवश्यकता होती है।कंठ संगीत पर ज्यादा बल दिया जाता है।
7.उप-शैलियाँअनेक उप-शैलियाँ हैं, जिनसे घरानों का उदभव हुआ है।गायन की केवल एक विशेष निर्धारित शैली है।
8.राग 6 प्रमुख रागदो प्रकार के राग, मेलाकार्ता राग (72 मेल) और बाल राग
9.मुख्य बल दिया जाता है। मुख्य रूप से रागों पर आधारित है।मुख्य रूप से ताल पर आधारित है।

उपशास्त्रीय संगीत :- इस संगीत में शास्त्रीय संगीत की तुलना में कम सख्ती के साथ स्वरों की रागों के नियमों का पालन किया जाता है। अर्थात उपशास्त्रीय संगीत में गायक को थोड़ी बहुत छूट मिली रहती है। इसमें ठुमरी, टप्पा, कजरी, चैती और गजल आदि शामिल है।

इसकी उत्पति उत्तर प्रदेश में हुई। आम-तौर पर यह मिश्रित सरल रागों पर आधारित होती है। इसमें रस, रंग और भाव की प्रधानता होती है। इसमें राग की शुद्धता की तुलना में भाव-सौंदर्य को ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है। इसके गीत (शब्द) प्रायः कृष्ण के लिए एक युवती के प्रेम के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। इसकी रचनाओं की भाषा आमतौर पर हिन्दी या बृज भाषा होती है और प्रायः महिला की आवाज में गायी जाती है। दादरा, होरी, कजरी, सावन, झूला और चैती ठुमरी के ही प्रारूप है। ठुमरी शास्त्रीय नृत्य कथक से जुडी है।

ठुमरी के प्रमुख घराने वाराणसी एवं लखनऊ में हैं।

बेगम अख्तर ठुमरी की सबसे प्रसिद्ध गायिका हुई। ठुमरी गायन शैली के अन्य प्रमुख गायक हैं —– छन्नूलाल मिश्र, सिद्धेश्वरी देवी, गिरिजा देवी

नोट :- लखनऊ के नबाब वाजिद अली शाह के दरबार में ठुमरी गायन शैली नई ऊँचाइयों तक पहुँची। वाजिद अली शाह स्वयं अख्तर पिया के नाम से ठुमरियों की रचना करते और गाते थे।

यह उत्तर-पश्चिम भारत के ऊँट हाँकने वाले गाते थे। इस शैली में मूल रूप से हीर-रांझा के प्रेम और विरह प्रसंगों को दर्शाया जाता है।

टप्पा गायन को लोक शैली से ऊपर उठाकर उप शास्त्रीय शैली का रूप मियाँ गुलाम नबी शोरी ने दिया जो अवध के नवाब आसफ-उद-दौला के दरबारी गायक थे।

इसमें वाक्यांशों को तेजी से बार-बार दोहराया जाता है।

इस शैली के कुछ विशिष्ट प्रतिपादकों में से है —- ग्वालियर घराने के लक्ष्मण राव पंडित, रामपुर-सहसवाँ घराने के शन्नो खुराना। इस शैली के अन्य कलाकार हैं —– मालिनी राजुर्कर, आरती अंकालिकर, आशा खादिलकर आदि।

ऐसा माना जाता है कि गजल की शुरुआत 10वी शताब्दी में ईरान में हुआ था। यह अरबी साहित्य की प्रसिद्ध काव्य विद्या है, जो बाद में फारसी, उर्दू, और हिन्दी साहित्य में भी काफी लोकप्रिय हुई।

गजल के पहले शेर को मतला और अंतिम शेर को मकता कहा जाता है। गजल के शेर में तुकांत शब्दों को काफिया और बार-बार दोहराए जाने वाले शब्दों को रदीफ कहा जाता है। शेर की पंक्ति को मिस्रा कहते हैं।

गजल का विषय भी केवल प्रेम ही होता है। गजल से जुड़ी कुछ प्रमुख हस्तियाँ हैं —- मिर्जा गालिब, मीर तकी मीर , फैज अहमद फैज, दुष्यंत कुमार, निदा फजली, कुँवर बेचैन आदि।

प्रेमी को जब ईश्वर से बात करनी होती है तो उसे कव्वाली कहा जाता है।

इस विद्या को विकसित करने का श्रेय अमीर खुसरों को जाता है।

कव्वाली मुख्य गायक के नेतृत्व में समूह में गाई जाती है।

कव्वाली सूफियों की देन है।

इसमें सवाल-जबाब का तरीका भी अपनाया जाता है।

इस शैली के प्रमुख गायक हैं :-

  • नुसरत फतेह अली खान
  • शंकर शंभु
  • साबरी ब्रदर्स

लोक जीवन से निकला गीत ही लोक संगीत कहलाता है।

ये गीत फसल काटने, विवाह, त्योहार और मृत्यु जैसे दुखद अवसरों पर गाए जाते हैं। इसमें समाज की व्यापक भागीदारी होती है।

सोहर, खेलौनो, समुझ बनी :- इन्हें बच्चों के जन्म के समय गाया जाता है।

कोहबर, घोड़ी, बन्ना, मांडवा, भात, गारी :- इन गीतों को विवाह के विभिन्न अवसरों पर गाया जाता है।

फाग :- यह बंसत पंचमी से लेकर होलिका दहन के सवेरे तक गाया जाता है। यह मुख्य रूप से पुरुषों का गीत है। अवधी, ब्रज, राजस्थानी, बुंदेलखंडी, छत्तीसग़ढी, बैसवाड़ी, बघेली, भोजपुरी आदि अनेक बोलियों में फाग संबंधी गीत गाए जाते हैं। फाग के प्रकारो में होली, चौताल, डेढ़ताल, तीन ताल, देलवइया, उलारा, चहका, लेज कबीर आदि प्रमुख है।

बाऊल :- यह एक संगीत के प्रकार के साथ-साथ धार्मिक संप्रदाय भी है। बाऊल घुम-घुम कर गाने वाले आध्यात्मिक लोगों का एक समूह होता है। इनका संबंध पश्चिम बंगाल, असम,त्रिपुरा और बांग्लादेश से है। बाऊल शब्द कृष्णदास कविराज द्वारा लिखित चैतन्य चरितामृत से प्राप्त हुआ है। यह संगीत गीतों के माध्यम से रहस्यवाद का उपदेश देने की लंबी विरासत का प्रतिनिधित्व करता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर भी उनके गीतों और जीवनशैली से प्रभावित थे।

इस संगीत के प्रमुख प्रतिपादक है :-

  • जतिन दास
  • पूर्णो चन्द्र दास
  • लालोन फकीर
  • नबोनी दास
  • सनातन दास ठाकुर

1. शब्द :- गुरुद्वारों में गुरुओं को समर्पित गायन शैली को शब्द कहते हैं। शब्द के विकास और लोकप्रियता के लिए गुरु नानक और उनके शिष्य मर्दाना उत्तरदायी थे।

2. भजन :- यह भक्ति गायन का सबसे लोकप्रिय प्रकार है। यह भक्ति आंदोलन के दौरान विकसित हुई। भजन के साथ सामान्यतः चिमटा, ढोलक, ढपली, मंजीरा, करताल, झाल जैसे वाद्ययंत्र बजाए जाते हैं।

मध्यकाल में भजनों के प्रमुख प्रतिपादक:-

  • मीराबाई
  • सूरदास
  • तुलसीदास
  • कबीर

वर्तमान में सबसे प्रसिद्ध भजन गायक अनूप जलोटा एवं अनुराधा पौडवाल है।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top