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भारतीय संगीत (Sangit) और वाद्ययंत्र (wadya yantra) डिटेल्ड नोट्स

संगीत शब्द गीत में सम जोड़ने से बना है। सम का आशय है – सहित और गीत का अर्थ है गान ; यानी नृत्य और वादन के साथ किया गया गान ही संगीत है।

कला की श्रेणी में पाँच ललित कलाएँ आती हैं :- संगीत, कविता, चित्रकला, मूर्तिकला और वास्तुकला। इन ललित कलाओं में संगीत को सर्वश्रेष्ठ माना गया है

ऐसा माना जाता है कि पृथ्वी पर संगीत कला का शुभारंभ नारद मूनि ने किया था।

पहली बार संगीत का सहित्यिक प्रमाण वैदिक काल में मिलता है। ऋग्वेद में संगीत संबंधी वाद्य यंत्रों जैसे :- मृदंग, वीणा, बंसी, डमरू आदि का उल्लेख मिलता है।

सामवेद को संगीत का जनक कहा जाता है।

संगीत विज्ञान को गंधर्व वेद कहा जाता है, जो सामवेद का एक उपवेद है

पहली बार संगीत कला के विषय में विस्तृत रूप से चर्चा भरतमूनि द्वारा लिखित नाट्यशास्त्र में मिलती है। इस ग्रंथ के छह अध्यायों में संगीत पर चर्चा की गई है।

19 वीं सदी में विष्णु नरायण भातखंडे और विष्णु दिगंबर पलुस्कर नामक संगीत के दो विद्वानों ने संगीत के स्वरों की लिपि तैयार की ताकि संगीत को लिखा अथवा लिपिबद्ध किया जा सके।

ध्वनि से उत्पन्न होता है नाद , नाद से उत्पन्न होता है श्रुति ,

यह एक प्रकार की ऊर्जा है जो कंपन के माध्यम से उत्पन्न होती है और जिससे हमें सुनने की अनुभूति होती है। जैसे – ईट के टकराने से , बच्चे का रोना , शोरगुल , पंखा चलने से , तबला पर आघात करने से , ताली बजने से।

नियमित और स्थिर कंपन से उत्पन्न होने वाली मधुर ध्वनि को हम नाद कहते हैं । नाद दो प्रकार के होते हैं। ————

  • आहत नाद :- वह नाद जो हमारे कानों को सुनाई देती है उसे आहत नाद कहते है। यह बाहरी श्रोतों से उत्पन्न होती है। जैसे :- ईट के टकराने से , बच्चे का रोना , शोरगुल , पंखा चलने से , तबला पर आघात करने से , ताली बजने से। इस आहत नाद से ही संगीत का जन्म होता है।
  • अनाहत नाद :- वह नाद जिसे हम महसूस करते हैं अर्थात जो हमारे मन में उत्पन्न होता है उसे अनाहत नाद कहते है। यह हमारे कानों को सुनाई नहीं देती है। मनुष्य के शरीर में दोनों कान बंद करने पर भी जो ध्वनि सुनाई देती है वह अनाहत नाद है।

वो नाद जिसे हम स्पष्ट रूप से सुन सकें, समझ सकें तथा किन्ही दो नादों के बिच अंतर बता सकें, उन्हें हम श्रुति कहते हैं। प्रत्येक श्रुति एक नाद होती है लेकिन प्रत्येक नाद एक श्रुति नहीं होती है।

नाद कई प्रकार के होते है लेकिन केवल 22 नाद हीं श्रुति कहलाते हैं अर्थात श्रुति 22 प्रकार की होती है

वह रंजक नाद जो अन्य नादों से संबंधित हो, स्वर कहलाता है। केवल नाद के रंजक होने से ही वह नाद, स्वर नहीं बन जाता है। बल्कि स्वर कहलाने के लिए इस रंजक नाद का अन्य नादो या मधुर व कर्णप्रिय ध्वनियों से संबंध स्थापित होना आवश्यक है।

भरत मुनि ने नाटय शास्त्र में, स्वरों को 22 स्वरों के पैमाने पर विभाजित किया। हिन्दुस्तानी संगीत की सांकेतिक प्रणाली को सात संक्षिप्त स्वरों या सप्तक या सरगमों :- सा, रे , ग, म, प, ध, नि द्वारा विभाजित किया गया है। ये शुद्ध स्वर हैं।

एक सप्तक में 22 श्रुतियाँ होती है जो 7 स्वरों के बीच फैली हुई है।

भारतीय संगीत में सात स्वरों का क्रमयुक्त प्रयोग [ आरोहण (ऊपर की ओर) – अवरोहण (नीचे की ओर) ] ही मूर्छना है। यह एक विशिष्ट स्वर से शुरू होकर सप्तक के अन्य स्वरों तक जाती है और फिर वापस उसी स्वर पर लौटती है।

इन्ही मूर्छनाओ के आधार पर प्राचीन काल में रागों का निर्माण होता था, जिस प्रकार आधुनिक काल में थाट या मेल से रागों का निर्माण होता है।

वह स्वर समूह जिससे राग उत्पन्न हो सके थाट कहलाता है। नाद से श्रुति , श्रुति से स्वर , स्वरों से सप्तक तथा सप्तक से थाट तैयार होते है।

थाट में 12 स्वरों (7 शुद्ध स्वर तथा 5 विकृत स्वर) में से सात शुद्ध स्वर होने चाहिए और इन्हें अनिवार्य रूप से आरोही क्रम में रखा जाना चाहिए। यानी सा के बाद रे, रे के बाद ग आदि।

थाट को गाया या बजाया नहीं जाता है। इससे केवल किसी राग की रचना की जाती है जिसे गाया-बजाया जाता है।

आज हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति में 10 थाट ही माने जाते हैं।

भारतीय संगीत में मात्राओं के समूह को ताल कहते हैं। अथवा धुनों का लयबद्ध समूह ताल कहलाता है। ताल संगीत में समय को व्यवस्थित करता है और एक लयबद्ध संरचना प्रदान करता है। यह लयबद्ध चक्र 3 से लेकर 108 धुनों का होता है। वर्तमान में केवल तीस ताल ज्ञात है उनमें से केवल दस से बारह ताल ही उपयोग किए जाते हैं। कुछ प्रमुख ताल हैं. ……

  1. हिन्दुस्तानी संगीत में :- एक ताल, त्रिताल, झुमरा, चौताल, धमार, दीपचंदी आदि।
  2. कर्नाटक संगीत में :- आदि ताल, रूपक ताल, झपताल, खंडचंपु ताल आदि।

गायन एवं वादन में किया और काल के परस्पर मिलन को लय कहते है। ताल को समझना और प्रस्तुत करना जितना सरल होता है। लय को समझना उतनी ही कठिन।

एक कलाकार को लय पर जितना अधिक अधिकार होगा, उसकी कला का जादू उतना ही ज्यादा होगा। लय तीन प्रकार के हैं :- विलंबित, मध्य और दुतलय

इसके गायन में प्रायः ‘अ’ ध्वनियों का प्रयोग होता है।

आलाप, राग का एक मधुर , बिना ताल का , गायन या वादन द्वारा किया जाने वाला परिचय है।

आलाप गायन की दक्षता के आधार पर निपुणता को परखा जाता है।

राग संयोजन से पहले आलाप का गायन/वादन किया जाता है।

हिन्दुस्तानी संगीत में आलाप एच्छिक होता है, जबकि कर्नाटक संगीत में यह अनिवार्य होता है।

रस का शाब्दिक अर्थ है – आनंद, संगीत में जो आनंद आता है वह संगीत का रस है।

रस सिद्धांत के जनक भरत मूनि है। उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ नाट्यशास्त्र में इस सिद्धांत की चर्चा की है, जिसमें रसों की संख्या आठ बताई गयी है।

शुरुआत में रसों की संख्या आठ ही थी, किन्तु बाद में शांत नामक 9वे रस की मान्यता मिली यानी अब रसों की कुल संख्या 9 है, जिसे नव रस कहा जाता है। :- 1. शृंगार रस, 2. हास्य रस, 3. करुण रस, 4. रौद रस, 5. वीर रस, 6. भयानक रस, 7. वीभरस रस, 8. अद्भूत रस, 9. शांत रस।

राग ध्वनियों या स्वरों की वह रचना है, जो गायन-वादन क्रिया से सजाई जाती है तथा जो श्रोता के मन में आनंद का एक विशेष प्रभाव अंकित करती है।

यह संगीत का मूलाधार है। राग शब्द की उत्पति रंज धातु से हुई है, जिसका अर्थ है – रंगना।

संगीत में इसका तात्पर्य सुरों को रंगने से हैं। राग भारतीय शास्त्रीय संगीत की आत्मा है।

क्र. सं. थाट संबंधित राग
1.कल्याण थाट वमन, भूपाली, केदार, हिंडोल छाया नट, गौड़रंग आदि।
2.विलाबल थाट देशकर, बिलावल, बिहाग दुर्गा, शंकरा आदि।
3.भैरवी थाट भैरवी, मालकौंस आदि।
4.भैरव थाट भैरव, जोगिया, रामकली, गुणकली आदि।
5.तोड़ी थाट मुल्तानी, तोड़ी, मधुवंती, रुद्रमंजरी आदि।
6.पूर्वी थाट बसंत, पूर्वी, ललित, राग श्री आदि।
7.खमाज थाट खमाज तिलंग, झिंझोटी आदि।
8.काफी थाट काफी, भीमपलासी, पीलू सारंग, मेघमल्हार आदि।
9. आसावरी थाट आसावरी, जौनपुरी आदि।
10.मारवा थाट मारवा, भटियार, सोहनी आदि।

हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में समयानुसार गायन प्रस्तुत करने की पद्धति है। प्रत्येक राग का संबंध विशेष प्रहर या समय , ऋतु , रंग आदि से है। संगीत आचार्यो ने दिन के 24 घंटों को 8 प्रहारों में विभाजित किया है। इनमें दिन के चार प्रहर हैं :- पूर्वाह्न, मध्याह्न, अपराह्न और सायंकाल ; रात के चार प्रहर हैं :- प्रदोश, निशिथ, त्रियामा और उषा है। विभिन्न रागों के समयानुसार वर्गीकरण निम्न है. …

क्र. सं. विभिन्न राग गाए जाने का समय /ऋतु
1.राग भैरवीप्रातः काल
2.राग बिलावल देर सुबह
3.राग यमन सायंकाल (रात्रि का प्रथम प्रहर)
4.राग भूपाली रात्रि का प्रथम प्रहर
5.राग विहाग रात्रि का द्वितीय प्रहर
6.राग देस रात्रि का द्वितीय प्रहर
7.राग बागेश्री रात्रि का द्वितीय प्रहर
8.राग काफी फाल्गुन माह (रात्रि का द्वितीय प्रहर)
9.राग मेघ रात्रि का द्वितीय प्रहर
10.राग मल्हार वर्षा ऋतु (पूरी रात या रात्रि का द्वितीय प्रहर)
11.राग सूर मल्हार वर्षा ऋतु में किसी भी समय
12.राग मालकौंस शीत ऋतु (रात्रि का तृतीय प्रहर)
13.राग दीपक शाम में दीपक प्रज्वलित करते समय
14.राग हिंडोल बसंत ऋतु (रात्रि का तृतीय प्रहर)
15.राग रागेश्री वर्षा ऋतु में किसी भी समय
16.राग दरबारी देर रात

शास्त्रीय संगीत :- शास्त्रीय संगीत यानी पुरी तरह नियमबद्ध संगीत। इसमें नियमों को कठोरता से पालन अनिवार्य है। इसकी प्रस्तुति यानी गायन वादन और नर्तन पूरी तरह से नियमबद्ध होते हैं। गायक को लंबे समय तक अभ्यास करना होता है, जिसे रियाज कहते हैं।

मध्यकाल में भारतीय संगीत (शास्त्रीय संगीत) के विकास के दौरान (1.) हिन्दुस्तानी संगीत (उत्तर भारतीय शैली) और (2.) कर्नाटक संगीत (दक्षिण भारतीय शैली) के रूप में दो भिन्न-भिन्न शैलियाँ विकसित हुई।

मध्यकाल के आरंभ में उत्तरी भारत पर इस्लामी आक्रमण और उनकी जीत से हिन्दुस्तानी संगीत पर अरबी एवं ईरान संगीत शैलियों का प्रभाव पड़ा। बाद में ये शैलियाँ प्राचीन हिन्दुस्तानी संगीत में घुल-मिल गई। इससे हिन्दुस्तानी संगीत में नए आयाम जुड़े। दक्षिण भारत ऐसी आक्रमण से बचा रहा इसलिए प्राचीन भारतीय परंपरा कायम रही।

इस प्रकार, दक्षिण भारत में भारतीय संगीत का परंपरागत एवं शुद्धतम रूप चलता रहा और शेष भारत में मुस्लिम प्रभाव के कारण संगीत में जो बदलाव आया, उसे हिन्दुस्तानी संगीत कहा गया।

इसमें सुबह और शाम के लिए अलग-अलग राग होते हैं। हिन्दुस्तानी संगीत की शैली में ध्रुपद प्रमुख है। इसके अलावा इसमें ख्याल, धमार, चतुरंग, तराना, त्रिवट, रागमाला, लक्षणगीत आदि शैलियाँ शामिल है।

इसका उद्गम मंदिरों से हुआ है। यह आलाप से प्रारंभ होता है, जिसे बिना शब्दों के गाया जाता है।

ध्रुपद में संस्कृत अक्षरों का उपयोग होता है।

प्राचीन काल में ध्रुपद गायक को कलावंत कहा जाता था। सामान्यतः दो पुरुष गायक ध्रुपद शैली का प्रदर्शन करते हैं।

ध्रुपद रचनाओं में सामान्यतः 4 से 5 पद होते हैं और ये जोड़े में गाए जाते हैं। इस गायन शैली में भक्ति रस, वीर रस, शांत रस, तथा शृंगार रस, की प्रधानता रहती है।

ध्रुपद गायन शैली में मुख्य रूप से रुद्र वीणा , सुरबहार , सुरसिंगार , पखावज और तानपुरा जैसे वाद्ययंत्रों का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा बांसुरी और सरोद जैसे वाद्ययंत्रों का भी उपयोग किया जा सकता है।

ध्रुपद गायन के विकास में संगीत सम्राट तानसेन एवं उनके गुरु स्वामी हरिदास का योगदान रहा है।

  • डागर बंधु :- दो प्रमुख जोड़ियों को डागर बंधु नाम दिया गया है।
    • वरिष्ठ डागर बंधु (सीनियर डागर बंधु) :- नासिर मोइनुद्दीन डागर और नासिर अमीनुद्दीन डागर
    • कनिष्ठ डागर बंधु (जूनियर डागर बंधु) :- नासिर जहीरुद्दीन डागर और नासिर फैयाजुद्दीन डागर
  • अन्य कलाकार :- उस्ताद रहीम फहीमुद्दीन डागर , उस्ताद रुइदास डागर , उस्ताद जिया फरीदुद्दीन डागर
  • गुंदेचा बंधु :- उमाकांत गुंदेचा और रमाकांत गुंदेचा

गुंदेचा बंधुओं का संबंध ध्रुपद गायन की डगरी घराना से है। डागर मुसलमान हीं हैं, लेकिन सामान्यतः हिन्दू देवी-देवताओं के पाठों को गाते है।

  • पंडित रामचतुर मल्लिक
  • पंडित सियाराम तिवारी
  • प्रेम कुमार मल्लिक
  • उदय कुमार मल्लिक
  • पंडित अभय नारायण मल्लिक
  • पंडित विदुर मल्लिक

दरभंगा घराने में ध्रुपद, खंडर वाणी और गौहर वाणी में गाई जाती है।

  • पंडित रामजी मिश्रा
  • पंडित माणिकचंद दुबे
  • पंडित रामलाल दुबे
  • पंडित अनूपचंद दुबे
  • पंडित सहदेव दुबे
  • पंडित प्रभाकर दुबे
  • ऋत्विक सान्याल :- माना जाता है कि ये स्वामी हरिदास के वंशज हैं, जो संगीत सम्राट तानसेन के गुरु थे।

ध्रुपद गायक ऋत्विक संन्याल (डागर शैली) को 2023 में पदम श्री पुरस्कार मिला है। इन्हें उत्तर प्रदेश रत्न 2016, उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार 2002 और केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार 2013 मिल चुका है।

  • इंद्रकिशोर मिश्रा
  • फाल्गुनी मिश्रा

यह घराना भी ध्रुपद का गौहर और खंडर वाणियों का प्रदर्शन करता है, जो कुछ खास तकनीकों से जुड़ी है और केवल परिवार के सदस्यों को ही सिखाई जाती है अर्थात बेतिया घराने के कलाकार अपनी कला को शिष्य परंपरा की बजाय वंश परंपरा से आगे बढ़ाते हैं।

इस प्रकार की गायकी (ध्रुपद शैली) को मर्दाना गायकी भी कहा गया है, क्योंकि यह माना जाता है कि यह गायकी मुश्किल है और पुरुष ही इसे गा सकते है। हालांकि, हाल के दिनों में कुछ महिलाओं ने इस शैली में गाकर नई शुरुआत की है, इसमें पाकिस्तान की आलिया राशिद और भारत की अमिता सिन्हा महापात्रा प्रमुख हैं। तलवंडी घराना (पाकिस्तान) का संबंध ध्रुपद गायन से है।

खयाल शब्द फारसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है विचार या कल्पना।

आधुनिक दौर में खयाल शैली की गायिकी ज्यादा प्रचलन में है। जहाँ ध्रुपद विशुद्ध भारतीय संगीत है, वहीं खयाल शैली में भारतीय और फारसी शैली का मिश्रण है।

ख्याल गायन में शृंगार रस की प्रधानता होती है। इसका विषय प्रेम होता है। इसमें भगवान कृष्ण की स्तुति की जाती है।

आमतौर पर इस शैली के उद्भव का श्रेय अमीर खुशरो को दिया जाता है।

बाद में 15वीं सदी में हुसैन शाह शर्की (जौनपुर के शासक) ने इस शैली को प्रोत्साहित किया

18वीं सदी में मुगल बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला ने इसे संरक्षण दिया। मुहम्मद शाह के दरबार में रहने वाले अदारंग (फिरोज खाँ) और सदारंग (नियामत खाँ) नाम के गायकों ने इस शैली के कई गीत रचे।

खयाल दो से लेकर आठ पंक्तियों वाले लघु गीतों पर आधारित होते हैं। इसकी रचना को बंदिश के रूप में भी जाना जाता है। इसकी रचना में तान का उपयोग होता है। ध्रुपद की तुलना में खयाल संगीत में अलाप को कम स्थान दिया जाता है।

सामान्यतः खयाल में दो गीतों का उपयोग होता है :-

  • बड़ा खयाल :- धीमी गति में गाया जाने वाला।
  • छोटा खयाल :- तेज गति में गाया जाने वाला।
  • हसन सावंत और बूला कलावंत :- इस दोनों भाइयों को दिल्ली घराने का संस्थापक माना जाता है।
  • जमालुद्दीन
  • कमालुद्दीन
  • सदानंद-अदानंद
  • तानरस खाँ
  • अचपल खाँ :- इन्हें अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का गुरु माना जाता है।

इस घराने की एक उपशाखा महाराष्ट्र में गोखले घराने के नाम से प्रसिद्ध है। दिल्ली घराना आगे चलकर दिल्ली और अवध में विभाजित हो गया इस घराने में सारंगी का इस्तेमाल ज्यादा होता है।

  • उस्ताद अब्दुल करीम खाँ :- इन्हे किराना घराने का संस्थापक माना जाता है।
  • हीराबाई बरोडकर
  • बेगम अख्तर
  • भीमसेन जोशी :- 2008 में भारत सरकार ने इन्हे भारत रत्न से सम्मानित किया।
  • गंगुबाई हंगल
  • प्रभा अत्रे
  • आनंद भाटे
  • उस्ताद अल्लादिया खान :- ये जयपुर घराने के संस्थापक है।
  • मल्लिकार्जुन मंसूर
  • वाल गंधर्व
  • मोगूबाई कुर्डीकर
  • बरकतुल्लाह खाँ
  • केसरबाई केरकर
  • किशोरी अमोनकर
  • पद्मा तलवलकर
  • अश्विनी भिड़े देशपांडे

यह घराना कठिन तानों, अप्रचलित और दुर्लभ रागों के लिए प्रसिद्ध हैं। राग परज, टंक, सुहा, सिंदुरा आदि कुछ ऐसे राग हैं, जो जयपुर घराने की धरोहर हैं।

इस घराने में ध्रुपद और ख्याल गायकी दोनों का प्रभाव है , लेकिन यह ख्याल गायकी के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है

जयपुर घराने से ही पटियाला और अल्लादिया खाँ घराना निकले हैं

  • बड़े गुलाम अली खान :- बड़े गुलाम अली खाँ साहब राग दरबारी के गायन के लिए प्रसिद्ध थे। इन्हें 20 वीं शताब्दी का तानसेन कहा जाता है। ये हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में ख्याल , ठुमरी और तराना जैसी शैलियों में महारत रखते थे।
  • अली बख्स खान
  • फतेह अली खान
  • अमानत अली खान
  • बड़े फतेह अली खान
  • बरकत अली खान
  • पंडित अजय चक्रवर्ती
  • मुनव्वर अली खान
  • आमिर खान

यह घराना पंजाब के पटियाला रियासत में विकसित हुआ।

  • उस्ताद फैयाज खाँ
  • उस्ताद अता हुसैन खाँ
  • उस्ताद वसीम अहमद खाँ
  • पंडित यशपाल
  • विलायत हुसैन खान
  • लताफत हुसैन खान
  • दिनकर काकिनी
  • शराफत हुसैन खान
  • युनुस हुसैन खान
  • गुलाम अब्बास
  • पंडित भास्कर बुआ बखले

यह घराना शृंगार, प्रेम और भक्ति के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। संभवतया इसी कारण से इस घराने को रंगीला घराना भी कहा जाता था। यह घराना ध्रुपद और ख्याल शैलियों का मिश्रण है।

यह घराना गायन, वादन और नृत्य तीनों ही कलाओं के लिए प्रतिष्ठत घराना है।

खयाल के साथ-साथ यह घराना ठुमरी गायन के लिए भी प्रसिद्ध है।

एक ओर पंडित बड़े राम दास जी, पंडित छोटे रामदास जी, पंडित महादेव प्रसाद मिश्र, पंडित राजन-साजन मिश्र, जैसे गायकों ने खयाल गायकी के माध्यम से इस घराने की पहचान दिलाई तो दुसरी ओर रसूलन बाई, बड़ी मोती बाई, सिद्धेश्वरी देवी, छन्नुलाल मिश्र जैसे कलाकारों ने ठुमरी गायन से जुड़कर इस घराने को प्रसिद्धी दिलाई।

शंभू सुमीर, गोपाल मिस्र, नारायण विनायक, हनुमान प्रसाद मिस्र आदि प्रसिद्ध सारंगी वादक हुए

उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ, पंडित राम सहाय मिश्र इस घराने के प्रसिद्ध शहनाई वादक हुए

बनारस घराना अपनी विशिष्ट तबला वादन शैली के लिए भी प्रसिद्ध है। तबला वादन के इस शैली को बनारसी बाज कहते हैं। इस शैली के प्रमुख तबला वादक है :- पंडित शारदा सहाय, पंडित कंठे महराज, पंडित किशन महाराज, पंडित समता प्रसाद (गुदई महाराज) आदि।

सितारा देवी इस घराने की प्रसिद्ध नृत्यांगना हैं।

छज्जू खान, नजीर खान और खादिम हुसैन ने 19वीं सदी में मुंबई भिंडी बजार इलाके में इस घराने की स्थापना की थी।

इस घराने के कलाकार एक ही साँस में लंबे-लंबे अंतरे गा सकते हैं। इसके अतिरिक्त ये इसीलिए भी अद्वितीय है, क्योंकि ये कुछ कर्नाटक रागों का भी उपयोग करते हैं।

  • इनायत हुसैन खान
  • फिदा हुसैन खान
  • उस्ताद इश्तियाक हुसैन खान
  • उस्ताद हफीज अहमद खान
  • उस्ताद मुस्ताक हुसैन खान
  • उस्ताद हैदर खान
  • गुलाम मुस्तफा खान
  • उस्ताद गुलाम हुसैन खान
  • गुलाम ताकी खान

नोट :- गायकी के क्षेत्र में दूसरा पदमभूषण सम्मान 1957 में रामपुर-सहसबान घराने के कलाकार मुश्ताक हुसैन खाँ को दिया गया। (शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में पहला पदमभूषण सम्मान 1954 में एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी को दिया गया था।

  • उस्ताद घग्गे नजीर खान और उस्ताद वाहिद खान :- इस घराने के संस्थापक हैं।
  • पंडित जसराज
  • मोतीराम
  • मणिराम
  • संजीव अभ्यंकर
  • पंदित रतन मोहन शर्मा
  • उस्ताद अमीर खाँ :- इस घराने के संस्थापक हैं।
  • उस्ताद रजाब अली खाँ
  • पंडित अमरनाथ
  • शंकर लाल मिश्रा
  • कंकना बनर्जी
  • पूर्वी मुखर्जी
  • सुल्तान खान

इस घराने की मुख्य विशेषता विलंबित लय में गायन है अर्थात इस घराने में गायन की गति धीमी होती है ,जो इसे अन्य घराने से अलग बनती है।

यह भगवान कृष्ण की क्रीड़ाओ एवं नाट्य लीलाओं पर आधारित गायन शैली है।

इसमें अधिकत्तर होली का वर्णन मिलता है।

इसमें धमार ताल का प्रयोग होता है। धमार ताल ध्रुपद गायन शैली से संबंधित है

इस शैली का आविष्कार भी अमीर खुसरों के द्वारा ही किया गया था।

इसकी रचना लघु एवं कई बार दोहराये जाने वाले रागों से हुई है।

सिख गुरु गोविन्द सिंह जी ने अपनी रचनाओं में तराना शैली का इस्तेमाल किया है।

तराना गायकी में राग, ताल एवं लय का ही आनंद मिलता है, शब्दों का नहीं।

तराना में निरर्थक शब्दों का प्रयोग होता है, जैसे :- तन दे रे ना, दीम तदानी, दिया नारे आदि।

  • उस्ताद तानरस खाँ
  • बहादुर खाँ
  • नत्थु खाँ
  • सलामत अली
  • नजाकत अली
  • बड़े गुलाम अली खाँ :- ये पटियाला घराने के थे और हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में ख्याल , ठुमरी और तराना जैसी शैलियों में महारत रखते थे।
  • पंडित मोतीराम :- इनको तराना के बादशाह कहा जाता है।

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