Last Update

“जैन” शब्द जिन से बना है, जिसका अर्थ है ‘ विजेता ‘।
जैन धर्म के संस्थापक एवं प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे।
जैन तीर्थंकरों की जीवनी भद्रबाहु द्वारा रचित कल्पसूत्र में है।
कल्पसूत्र जैन परम्परा का सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ है। इसके एक भाग में जैन धर्म के तीर्थंकरों के जन्म से लेकर निर्वाण तक की विविध घटनाओं का वर्णन किया गया है। उनके जीवन की पाँच प्रमुख घटनाओं (गर्भाधान, जन्म, गृहत्याग, ज्ञान प्राप्ति व प्रथम उपदेश) को विशेष रूप से प्रस्तुत किया गया है।
Table of Contents
पार्श्वनाथ
जैनधर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ थे, जो काशी के इक्ष्वाकु वंशीय राजा अश्वसेन के पुत्र थे।
इन्होंने 30 वर्ष की अवस्था में संन्यास-जीवन को स्वीकारा।
इनके द्वारा दी गयी शिक्षा थी। …………….1. हिंसा न करना, 2. सदा सत्य बोलना, 3. चोरी न करना तथा 4. सम्पति न रखना।
महावीर स्वामी
महावीर स्वामी जैन धर्म के 24वें एवं अंतिम तीर्थंकर हुए।
महावीर का जन्म 540 ईसा पूर्व में कुण्डग्राम (वैशाली) में हुआ था।
इनके पिता सिद्धार्थ ज्ञातृक कुल’ के सरदार थे और माता त्रिशला लिच्छवि (वैशाली) राजा चेतक की बहन थी।
महावीर की पत्नी का नाम यशोदा एवं पुत्री का नाम अनोज्जा प्रियदर्शनी था।

नोट :- महावीर के गर्भाधान के समय उनकी माता त्रिशला ने 14 वस्तुओं का स्वपन देखा। 14 वस्तुएँ थीं – हाथी, बैल, शेर, देवी लक्ष्मी, कलश, पालकी, सरोवर, छोटी नदी, अग्नि, ध्वज, माला, रत्नों का ढेर, सूर्य एवं चन्द्रमा। उन्होंने अपने सपने के बारे में एक ज्योतिषी से बात की। ज्योतिषी ने बताया कि वे एक ऐसे पुत्र को जन्म देंगी जो या तो राजाध्यक्ष होगा अथवा एक महान संत।
महावीर के बचपन का नाम वर्द्धमान था।
इन्होंने 30 वर्ष की उम्र में माता-पिता की मृत्यु के पश्चात अपने बड़े भाई नंदिवर्धन से अनुमति लेकर संन्यास-जीवन को स्वीकारा था।
12 वर्षों की कठिन तपस्या के बाद महावीर को जृम्भिक के समीप ऋजुपालिका नदी के तट पर साल वृक्ष के नीचे तपस्या करते हुए सम्पूर्ण ज्ञान (कैवल्य अर्थात दुख और सुख पर विजय की प्राप्ति) का बोध हुआ।
इसी समय से महावीर जिन (विजेता), अर्हत (पूज्य) और निर्ग्रन्थ (बंधनहीन) कहलाए।
उत्तरायण सूत्र में महावीर की शिक्षाओं का वर्णन है, जहाँ भिक्षुओं के आचार संहिता का पालन करने का वर्णन किया गया है।
महावीर ने अपना पहला उपदेश राजगृह में विपुलाचल पर्वत पर दिया था। उन्होंने अपना पहला उपदेश अपने 11 शिष्यों (जिन्हें गणधर कहा जाता था) को दिया था।
महावीर ने अपना उपदेश प्राकृत (अर्धमागधी) भाषा में दिया।
प्रत्येक तीर्थंकर के साथ एक प्रतीक जुड़ा था और महावीर का प्रतीक सिंह था।
महावीर के अनुयायियों को मूलतः निग्रंथ कहा जाता था।
महावीर के प्रथम अनुयायी उनके दामाद जामिल(अनोज्जा प्रियदर्शनी के पति) बने।
प्रथम जैन भिक्षुणी नरेश दधिवाहन की पुत्री चम्पा थी।
महावीर के भिक्षुणी संघ की प्रधान चन्दना थी।
महावीर ने अपने जीवन का अंतिम उपदेश पावापुरी (राजगीर) में दिया था।
72 वर्ष की आयु में महावीर की मृत्यु (निर्वाण) 468 ईसा पूर्व में बिहार राज्य के पावापुरी (राजगीर) में हो गई।
आर्य सुधर्मा अकेला ऐसा गन्धर्व था, जो महावीर की मृत्यु के बाद भी जीवित रहा और जैनधर्म का प्रथम थेरा या मुख्य उपदेशक हुआ।
प्रमुख जैन तीर्थंकर और उनके प्रतीक चिह्न
क्र. सं. | जैन तीर्थंकर के नाम एवं क्रम | प्रतीक चिह्न |
---|---|---|
1. | ऋषभदेव / आदिनाथ (प्रथम) | साँड |
2. | अजितनाथ (द्वितीय) | हाथी |
3. | संभवनाथ (तृतीय) | घोड़ा |
4. | सुपार्श्वनाथ (सप्तम) | स्वास्तिक |
5. | शांतिनाथ (सोलहवाँ) | हिरण |
6. | अरनाथ (अठारहवाँ) | मीन |
7. | नमिनाथ (इक्कीसवें) | नीलकमल |
8. | अरिष्टनेमि (बाइसवें) | शंख |
9. | पार्श्वनाथ (तेइसवें) | सर्प |
10. | महावीर (चौबीसवें) | सिंह |
नोट :- दो जैन तीर्थंकरों ऋषभदेव (प्रथम) एवं अरिष्टनेमि (बाइसवें) के नामों का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। अरिष्टनेमि को भगवान कृष्ण का निकट संबंधी माना जाता है।
जैन धर्म का विभाजन
लगभग 300 ईसा पूर्व में मगध में 12 वर्षों का भीषण अकाल पड़ा, जिसके कारण भद्रवाहु अपने शिष्यों सहित कर्नाटक चले गए। किंतु कुछ अनुयायी स्थूलभद्र के साथ मगध में ही रुक गए। भद्रवाहु के वापस लौटने पर मगध के साधुओं से उनका गहरा मतभेद हो गया, जिसके परिणामस्वरूप जैन मत श्वेताम्बर एवं दिगम्बर नामक दो सम्प्रदायों में बँट गया।
- स्थूलभद्र के शिष्य श्वेताम्बर (श्वेत वस्त्र धारण करने वाले)
- भद्रवाहु के शिष्य दिगम्बर (नग्न रहने वाले) कहलाए।
क्र. सं. | दिगम्बर | श्वेताम्बर |
---|---|---|
1. | ये पाँचों निग्रहों का पालन करते हैं। —— सत्य, अहिंसा, अस्तेय अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य। | ये केवल चार निग्रह का पालन करते हैं —— सत्य, अहिंसा, अस्तेय एवं अपरिग्रह। ये ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करते। |
2. | यह संप्रदाय, 6 अनंत पदार्थों का अस्तित्व स्वीकार करता है। ——- आत्मा (जीव), पदार्थ (पुदगल), अंतरिक्ष (आकाश), गति(धर्म), स्थिरता(अधर्म) तथा समय (काल) | यह संप्रदाय, समय (काल) को छोड़कर 5 अनंत पदार्थ का अस्तित्व स्वीकार करता है —– आत्मा, पदार्थ, अंतरिक्ष, गति एवं स्थिरता। |
3. | इसमें महिलाएँ तीर्थंकर नहीं हो सकती थी। | इसमें महिलाएँ, भी तीर्थंकर हो सकती है। |
4. | ये मानते हैं कि महावीर ने विवाह नहीं किया था। | ये मानते हैं कि महावीर ने विवाह किया था और उन्हें संतान थी। |
5. | ये मानते हैं कि 19 वें तीर्थंकर मल्लिनाथ पुरुष थे। | ये मानते हैं कि मल्लिनाथ स्त्री थी। |
6. | इनका कहना है कि मूल जैन ग्रंथ आगम खो चुका है। | ये जैन ग्रंथ आगम को स्वीकार करते हैं। |
7. | ये मानते हैं कि कैवल्य प्राप्ति के बाद उपवास करके रहा जा सकता है। | ये मानते हैं कि कैवल्य प्राप्ति के बाद भी भोजन की आवश्यकता पड़ती है। |
8. | ये स्त्रियों के इसी जीवन में मुक्ति का विरोध करते हैं। | ये इसी जीवन में स्त्रियों की मुक्ति की अधिकारणी मानते हैं। |
9. | ये सफेद वस्त्र नहीं पहनते हैं क्योंकि इसे निर्वाण (मोक्ष) में बाधक मानते हैं। | ये सफेद वस्त्र पहनते हैं तथा इसे निर्वाण (मोक्ष) में बाधक नहीं मानते हैं। |
जैन संगीतियाँ
क्र. सं. | संगीति | वर्ष | स्थल | अध्यक्ष |
---|---|---|---|---|
1. | प्रथम | 300 ईसा पूर्व | पाटलिपुत्र | स्थूलभद्र |
2. | द्वितीय | 512 ई. | बल्लभी (गुजरात) | क्षमाश्रवण |
जैन धर्म से सम्बंधित सिद्धांत
जैन धर्म के थ्री ज्वेल्स ( त्रिरत्न ) हैं :-
- 1. सम्यक दर्शन (सही विश्वास)
- 2. सम्यक ज्ञान (सही ज्ञान) और
- 3. सम्यक आचरण (सही आचरण) ।
त्रिरत्न के अनुशीलन में निम्न पाँच महाव्रतों का पालन अनिवार्य है :-
- अहिंसा :- जीव को चोट न पहुँचाना।
- सत्य वचन :- झूठ न बोलना।
- अस्तेय :- चोरी न करना
- अपरिग्रह :- संपत्ति का संचय न करना और
- ब्रह्मचर्य
जैन धर्म के सप्तभंगी ज्ञान के अन्य नाम स्यादवाद व अनेकांतवाद है, जो जैन धर्म का मौलिक सिद्धांत हैं।
- स्यादवाद :- इसे महावीर ने दिया था।
- अनेकांतवाद :-
जैन धर्म ने अपने आध्यात्मिक विचारों को सांख्य दर्शन से ग्रहण किया।
जैन धर्म में ईश्वर की मान्यता नहीं है। उनका मानना है कि ब्रह्मांड और उसके सभी पदार्थ शाश्वत हैं। ब्रह्मांड स्वयं के ब्रह्मांडीय नियमों द्वारा अपने हिसाब से चलता है। इसमें सभी पदार्थ लगातार अपने रूपों को बदलते या संशोधित करते हैं। यहाँ कुछ भी नष्ट या निर्मित नहीं किया जा सकता। इसे चलाने या प्रबंधित करने की आवश्यकता नहीं होती है।
जैन धर्म के अनुसार, सृष्टि का निर्माण जीव तथा अजीव नामक दो मूल तत्वों से हुआ है। जीव चेतन तत्व है और अजीव अचेतन जड़ तत्व है।
जैन धर्म में आत्मा की मान्यता है। जैनियों के अनुसार, जीव (आत्मा) न केवल मनुष्यों व पशु-पक्षियों में वरन पेड़-पौधे, पत्थरों व जल में भी पाया जाता है।
महावीर पुनर्जन्म एवं कर्मवाद में विश्वास करते थे।
जैन धर्म मानने वाले कुछ राजा थे :- उदायिन, बंदराजा, चन्द्रगुप्त मौर्य, कलिंग नरेश खारवेल, राष्टकूट राजा अमोघवर्ष, चंदेल शासक।
मैसूर के गंग वंश के राजाओं के सेनापति एवं प्रधानमंत्री चमुंडाराय के प्रोत्साहन से कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में 10वीं शताब्दी के मध्य भाग में विशाल बाहुबलि की ग्रेनाइट पत्थर की मूर्ति (गोमतेश्वर की मूर्ति) का निर्माण किया गया। गोमतेश्वर की प्रतिमा कयोतसर्ग मुद्रा में है। यह मूर्ति 18 मी. या 57 फीट ऊँची है एवं एक ही चट्टान को काटकर बनाई गई है। यह विश्व में एक ही पत्थर से बनी, बिना किसी सहारे के खड़ी, सबसे लंबी मूर्ति है।
राजस्थान में माउन्ट आबू पर्वत पर स्थित जैन मंदिर विमलशाह द्वारा बनवाए गए थे।
काठियावाड़ (गुजरात) में पालिताना के निकट शत्रुंजय की पहाड़ियों में एक विशाल जैन तीर्थस्थल है जहाँ एक साथ जुड़े हुए बीसियों मंदिर दर्शनीय हैं।
खजुराहो(मध्य प्रदेश) में जैन मंदिरों का निर्माण चंदेल शासकों द्वारा किया गया।
आधुनिक तमिलनाडु के पुदुकोट्टई जिले में स्थित सिथन्नवसल या सित्तनवासल गुफाएँ जैन धर्म से संबंधित है।
मौर्योत्तर युग में मथुरा जैन धर्म का प्रसिद्ध केंद्र था। मथुरा कला का संबंध जैनधर्म से है।
नोट :- छठी से नौवीं शताब्दी के बीच बड़ोदरा के पास अकोटा (गुजरात) एवं पश्चिमी भारतीय क्षेत्र में कांस्य की अधिकांश मूर्तियाँ महावीर, पार्श्वनाथ जैसे तीर्थंकरों की बनायी जाती थी। इसमें तीर्थंकरों को एक सिंहासन पर विराजमान दिखाया गया और उनमें ये तीर्थंकर अकेले या तीन से 24 तीर्थंकरों के समूह में प्रस्तुत किए गये। इनके आलावा कुछ प्रमुख तीर्थंकरों की शासन देवियों या यक्षिणियों की नारी प्रतिमाएँ भी बनाई जाने लगीं। चक्रेश्वरी आदिनाथ की शासन देवी एवं अंबिका नेमिनाथ की शासन देवी है।